|| जीवन गाथा ||

|| बा. ब्र. पं. श्री सुमतप्रकाश जी: एक परिचय ||

सन् 1963 में धर्मनगरी विदिशा में जन्मे बाल ब्रह्मचारी श्री सुमतप्रकाश जी (जिन्हें आदरणीय भाईसाहब भी कहा जाता है) ने अपने जीवन को आत्म-साधना के लिए समर्पित कर दिया। बाल्यावस्था से ही विचारशील रहे, आपने लौकिक शिक्षा के साथ-साथ घर के आध्यात्मिक माहौल से मिले अलौकिक ज्ञान में विशेष रुचि विकसित की।

|| आत्म-साधना और गुरु की शरण ||

काललब्धि (सही समय) आने पर जब आपको आत्मस्वभाव की खबर पड़ी, तब इंद्रिय विषयों में आपकी आसक्ति दूर होती गई और आप निज स्वरूप के निकट आते गए। मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में, आपको मोक्षमार्ग प्रकाशक श्रद्धेय पू. बा. ब्र. रवीन्द्रजी अमयान के रूप में अपने गुरु मिले, जिनकी शरण में रहकर आपने गहन आत्म-साधना की। आपका एकमात्र लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति रहा।

हम तो उन प्रभु के अनुयायी हैं, जो पर की ओर देखते ही नहीं। उन गुरुओं के भक्त हैं, जो पर सहाय की वांछा से रहित हैं। उस जिनवाणी माँ के सपूत हैं, जो स्वावलम्बन सिखाती है।

मोक्षमार्ग का सार: "मैं स्वयं भगवान हूँ, परिपूर्ण प्रभु हूँ" – बस इतना जानना और मानना, यही मोक्षमार्ग है।

|| अध्यात्म की सहज अभिव्यक्ति ||

मोक्षमार्ग के यथार्थ स्वरूप को समझने के बाद आपको अतुलनीय आनंद की अनुभूति हुई। उसी क्षण से आपने ब्रह्मचर्य (निजस्वरूप में विचरण करने का प्रतिज्ञाबद्ध काल) का आरंभ किया, जिसमें आपने स्वयं जिनागम (जैन धर्मशास्त्र) का गहन अभ्यास किया और उसके मर्म को बड़ी सुलभ रीति से जन-जन तक पहुँचाया।

|| सिद्धांतों को जिया, मर्म को पिया ||

एक ऐसे समय में जब जिनवाणी का स्वाध्याय केवल ज्ञानार्जन का विषय बन गया था और सम्यग्दर्शन (सही श्रद्धा) के नाम पर केवल भावना/कल्पना शेष थी, तब आपने अध्यात्म के गूढ़ सिद्धांतों को सरलता व प्रयोगात्मक रीति से समाज के सामने प्रस्तुत किया। आपने यह स्पष्ट किया कि सम्यग्दर्शन प्राणी मात्र का अधिकार है और यह अत्यंत सरल है।

आपके प्रवचनों और साहित्य की कुछ मूलभूत पंक्तियाँ, जो आपके जीवन का प्रतिबिंब हैं:

  • “आत्मा हूँ, आनंद करो!!” – केवल एक ही पंक्ति मुझे पूर्ण सुखी करने में समर्थ है।

  • क्रिया से आनंद नहीं, आनंद में क्रिया।

  • स्वाध्याय केवल अध्ययन नहीं, प्रयोगात्मक होता है।

  • यथार्थवाद ही आदर्शवाद है।

स्वानुभव ही जीवन है तथा स्वभाव का विस्मरण तो मरण ही है, इसीलिए मिथ्यादृष्टि को चलता फिरता मुर्दा कहा है।

|| करुणा और मार्गदर्शन ||

आदरणीय भाईसाहब ने अपनी प्रभावशाली शैली व स्पष्टीकरण से एक लोकप्रिय प्रवचनकार के रूप में ख्याति प्राप्त की। साथ ही, आपने जीवनोपयोगी साहित्य का सृजन किया, जो जीवन के हर पड़ाव, हर वर्ग और हर समस्या के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

|| विश्व मैत्री का भाव ||

आपकी दृष्टि में पर्याय चाहे कैसी भी हो, आपने कभी किसी को हीन नहीं जाना। कोई भी जीव आपके समागम में आया, आपने उसे उतनी ही करुणा और वात्सल्य से हृदय से लगाया और उसे उसका भगवान आत्मा दिखाया। यही तो विश्व मैत्री है, जहाँ निर्दोष आत्मा के आगे पर्याय का कोई दोष नहीं दिखता। शील की बाड़ मेरु समान अचल रखते हुए, आपने निरंतर सत्य एवं अहिंसा की प्रेरणा दी, और जीवन में न्याय व नीति की महत्ता सिखाई।

|| निजार्थ कार्य ||

आपके जीवन का सार इस बात में निहित है कि आपने जो भी कार्य किया, वह अपने लिए ही किया – अपने लिए समझा, अपने लिए लिखा, अपने लिए संयम लिया, और अपने लिए ही हर घड़ी प्रसन्न रहे। आपने कभी कोई कार्य दूसरों को दिखाने या लुभाने के लिए नहीं किया।

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